मिटटी की गुडिया हे,
मिटटी में मिल जाएगी,
जिए, तो भी क्या?
मर जाये,
तो भी क्या?...
मंजिल के जो ख्वाब देखा
करती हे,
पुरे कर पाए, तो भी क्या?
बिच राह में सब छोड़ जाये, तो भी क्या?
किमत हे उसकी जब, तब किसिको
उसकी किमत नहीं,
जब कीमत होगी, शायद वो ना
रेह जाएगी,
तब उस कीमत की क्या, कोई किमत रह जाएगी?
किसीने उस पर ऊँगली करी,
किसीने दो बाते शोख से सुनी,
हालात का मजाक बनाया, तो
भी क्या?
उसकी हालत का मजाक बनाया, तो भी क्या?
चीख-चीखकर चिल्लती उसकी
अन्दर की आवाज़, खामोश डरी, वो कोने में खड़ी,
छुप-छुपकर रोये, तो भी
क्या?
फुट-फुटकर रोये, तो भी क्या?
दिमाग हे जब तक वो डटकर खड़ी
हे, घुट-घुटकर कोने में, जब वो बेवजह मुस्कुराएगी,
पागल बन जाये, तो भीं
क्या?
पागल बना दी जाये, तो भी क्या?
तमाशे देख लिए बहोत, बस
सुकून की तलाश में वो अब भी बाकी हे,
जिंदगी बरसो की हो, तो भी
क्या?
या कल, सुबह ही ना हो, तो भी क्या?

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