किसीको वक्त से हे, किसीको
हर वक्त हे,
शिकायते ढेर सारी मुझे
उससे, और उसे किसी और से हे...
बातो बातो में हर बात
उसकी, पर उसकी ना किसी बात में, में,
वापस उस चीज़ से, शिकायते
हे...
किसी को कुछ बीते पल से,
तो किसीको, आनेवाले कल से,
किसीको किसी से प्यार, तो
किसीको किसी की खूबसूरती से, शिकायते हे...
ना तब उसके रंग से थी, ना
रूप से,
पर अब ज़ालिम उसकी, हर चीज़
से, शिकायते हे...
शिकायते भी साली एसी होती
हे, की हर बार अपनो से होती हे,
फिर वो शिकायते क्यूँ, उस
बात से वापस, शिकायते होती हे...
थोड़ी शिकायते मुझे थी, और
शायद थोड़ी उसे भी,
पर तब बदला वक्त था, और अब
बदले रिश्ते भी...
लोगो को हालात से, और हालात
को इन्सान से,
शिकायतों के मेले में
लगी, एक बाजी फिर, ज़ज्बात की...
खेल भी बड़े मज़ेदार जब
खेले जाते हे, तब शिकायत होने पर,
शिकायत क्यूँ ये सवाल
किये जाते हे...
रोने पर, ना देखनेवाला
कोई, समजाने पर, ना समजनेवाला कोई,
सुननेवाला मिल जाये अगर,
तो गलत गली से गुजरने पर वापस, शिकायते हे...
तीसरे को शिकायत थी, की
वो उसकी नही थी, दुसरे को की वो किसी और की थी,
फिर वो एक सोच से मिली
की, उस मंजिल पर वो बदनाम सी,
ना किसी की म्ह्होब्बत, ना
किसीकी ज़रूरत, हर किसीकी वो सिर्फ और सिर्फ, शिकायत थी...
कुछ कडवी coffee सी, कुछ
नरम barbecue सी,
बाते कुछ बचकानी सी, राहे
कुछ अंजानी सी,
फिर बेनाम रिश्तो की, कुछ
नयी कहानी सी,
फिर पास आती मंजिल सी, और
मंजिल फिरसे, शिकायत की...
सिने में अब दफ़न किस्सा नरम
पुरानी बातो का,
बाकि बचा पूरा हिस्सा, अब
आनेवाली गरम मुलाकातों का,
कुछ गरम, कुछ नरम, इस खेल
में अब ना पडो तुम,
ये चलता ही जायेगा, अभी
तो खेल बाकि हे, कही अनकहे ज़ज्बातो का...
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