पंछि -





एक पंछि पिंजरे में केद था, अपने आपसे ही अंजान था,
मुस्कुराता तो था वो, पर मुस्कान में छुपा बहोत कुछ था...

खुदसे ही वो नाराज़ सा, पर अपने आपसे भी उसे प्यार था,
कहानी तो कुछ मालूम नहीं, पर मामला शायद दिल का था...

जो बन चूका शायद अब दर्द था,
जिसने पंछी को पूरा बदला था...
अपने आपसे ही वो लड़ता रोज़,
क्यों वो अपनी दुनिया का हिस्सा था...

शायद अन्दर से टुटा, पर नकाब पहेन कर रखा था...
भोलेपन को उसके शायद, अकेलापन खा चूका था...

अब फितरत उसकी बदली थी, हर किसीको समजता वो मतलबी था,
अछ्छाई से मन उठाकर अब वो, बुरे शोख पाला करता था...

रात-रातभर जागता वो, नींद से नाता तोड़ चूका था,
पहेले से शायद एसा नही, पर अब हर चीज़ को समजता खेल था...

सुरत अब कुछ यु थी, बाते बनाना वो सीख चूका था,
जिस डाल पर जाकर बेठता, हर डाल को समजता वो छल था...

बदलना ना चाहता था वो अब, अपनी इसी शकल से अब उसे प्यार था,
पिंजरे से किसी ने उसे निकलना चाहा, पर अब पिंजरे को ही समजता वो अपनी दुनिया था...

पिंजरा खोलकर इंतजार किया जिसने, उसे बदले में मिला खारा बूंद था,
बहार निकालने वाला गुजर गया, अब वक्त ने भी बदला अपना मोड़ था...

बहोत दिन गुजरने पर अब पंछी को आया ख्याल था,
जो गुजरा क्या वो सपना था?
जो खोया क्या वो अपना था?
अब क्या मिलेगा कभी वो वापस उसे?
जो पिंजरा खोलने आया था | 

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